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Identification of Guava of Kakrala in trouble due to Ukhta, gardeners in trouble

ककराला में अमरूद के बागान। संवाद

बदायूं। करीब एक दशक पहले ककराला और सखानूं में कई हजार एकड़ में अमरूद के हरे-भरे बाग नजर आते थे, लेकिन अब उखटा रोग इन्हें चट कर गया है। यही वजह है कि अब अमरूद उत्पादकों को लागत तक निकालना मुश्किल हो गया है। एक दशक में अमरूद की बागबानी को करीब 80 से 85 फीसदी तक नुकसान हुआ है।

ककराला और सखानूं को यहां के अमरूद ने प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश भर में खास पहचान दी थी। दिल्ली के अलावा राजस्थान, हरियाणा और बिहार तक इसका निर्यात होता था। किसानों की मानें तो सीजन में प्रतिदिन अकेले ककराला से चार से पांच सौ ट्रक अमरूद देश की विभिन्न मंडियों में पहुंचता था, लेकिन अब यह संख्या 50 से 100 तक ही सिमट कर रह गई है।

फल पट्टी घोषित होने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकार की ओर से संचालित कृषि से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी बागवानों तक नही पहुंच पाती। ऐसे में उखटा रोग ने कोढ़ में खाज का काम किया और अमरूद की खेती यहां कम होती गई। किसानों के अनुसार, अब यहां केवल 15 प्रतिशत ही अमरूद के बाग रह गए हैं। बागवान अमरूद की फसल से मुंह मोड़ रहे हैं।

क्या है उखटा रोग

– अमरूद में उखटा रोग फंगस से फैलता है। इसमें विशेष रूप से फ्यूजेरियम स्पेसीज माक्रोफोमिना फासकोलिना और सेफालोस्पोरियम स्पेसीज प्रमुख हैं। इसकी रोकथाम सूखे पौधे और सूखी टहनी को निकालकार की जा सकती है। रोगग्रस्त भाग को काटकर बेनोमाईल कार्बेंडाजिम के 20 ग्राम को पानी में घोल बनाकर प्रति पौधा डाला जाना चाहिए। मुरझाए पौधों में 0.5 प्रतिशत मेटासिस्टाक्स और जिंक सल्फेट के मिश्रण का छिड़काव किया जाना चाहिए लेकिन यह तभी कारगर है जब रोग पौधे के ऊपर से लगा हो। चूंकि यहां उखटा रोग जड़ की तरफ से असर कर रहा है, इसलिए ये उपाय भी कारगर नहीं हो रहा।

बराबरी पर भी नहीं छूटती खेती

– सखानूं के अमरूद उत्पादक मोहम्मद अहमद बताते हैं कि उखटा रोग ने तो अमरूद की खेती बेकार की ही, इसके साथ ही खर्चा ज्यादा और मुनाफा कम होने के कारण भी उत्पादकों का मोह इससे भंग होने लगा। निराई, पानी, खाद आदि मिलाकर करीब चार हजार रुपये बीघा का खर्च बैठता है। इसके बाद फल तुड़वाई, पैकिंग आदि पर करीब पांच हजार खर्च हो जाते हैं। कभी-कभी तो उत्पादन बराबरी पर भी नहीं छूटता।

उखटा के कारण जल्दी खराब हाे जाते हैं फल

– पौधा लगाने के करीब पांच साल बाद पूरे फल आने लग जाते हैं। अब नवंबर में फल आने शुरू हो जाएंगे जो मार्च तक चलेंगे। पेड़ करीब 15 साल तक फल देते हैंं लेकिन अब उखटा के कारण ये जल्दी खराब होने लगे हैं। ककराला में करीब 20 प्रतिशत बाग ही बचे हैं। सरकार की तरफ से भी कोई सुविधा नहीं मिलती। यहां से अमरूद दिल्ली, गाजीपुर, शामली, मेरठ, मुजफ्फरनगर आदि जगहों पर भेजते थे, लेकिन अब जगह और सीमित हो गई हैं। – अफजल खान, अमरूद उत्पादक

– सीजन में पहले राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और बिहार के लिए रोजाना चार-पांच सौ बड़ी गाड़ियां अमरूद लेकर जाती थीं लेकिन अब यह संख्या 50 पिकअप तक ही सिमट गई है। एक पिकअप में 20 क्रेट अमरूद पैक करने में तीन हजार और तोड़ने में करीब छह हजार का खर्चा आता है। इसके अलावा अब रोग के कारण तीन-चार साल तक पेड़ पर फल ही नहीं आता। किसान फल के इंतजार में रहते हैं और अंत में उसे कटवा देते हैं। यही वजह है कि अब यहां अमरूद का उत्पादन काफी कम रह गया है। – राशिद, आढ़ती

समय-समय पर किसानों को दिया जा रहा प्रशिक्षण

– अमरूद के पेड़ की उम्र 12 से 15 साल होती है, उसके बाद समस्या आने लगती है। उखटा रोग ने भी किसानों को परेशान किया है। इस रोग में चूंकि पौधे के जाइलम और फ्लोएम चोक हो जाते हैं, इसलिए जड़ से रोग पैदा होने लगता है और उसका निदान नहीं हो पाता। दवाएं केवल तभी कारगर हैं जब रोग पौधे में ऊपर से लगे। फल पट्टी होने के कारण विभाग द्वारा प्रदत्त सुविधाएं किसानों को दी जा रही हैं। इसके लिए दवा छिड़कने वाली मशीनों और ट्रैक्टर चालित उपकरणों पर अनुदान समेत किसानों को साल में तीन बार प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इसके अलावा सर्दियों में किसानों को मार्केटिंग का प्रशिक्षण और पौधे लगाने से लेकर फल आने तक आईपीएम (इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट) का प्रशिक्षण भी किसानों को दिया जा रहा है। – सुनील कुमार, जिला उद्यान अधिकारी

ककराला में अमरूद के बागान। संवाद

ककराला में अमरूद के बागान। संवाद

ककराला में अमरूद के बागान। संवाद

ककराला में अमरूद के बागान। संवाद

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